निर्णय व संगति:- श्री श्री रवि शंकर
यद्यपि तुमने सुना है, निर्णय मत करो, किन्तु दैनिक जीवन में निर्णय लेना अनिवार्य हो जाता है। लोगों के व्यवहार व कार्यों के कारण तुम उनसे सहमत या असहमत होते हो। परन्तु सदैव याद रखो कि सब कुछ परिवर्तनशील है और किसी भी निर्णय पर अड़े मत रहो। अन्यथा तुम्हारी धारणाएँ चट्टान की तरह ठोस हो जाती हैं। यह तुम्हें भी दुःखी करती हैं, औरों को भी। यदि निर्णय हवा के झोकों की तरह हल्के हों, तो वे सुगन्ध फैलाकर आगे बढ़ जाते हैं। वे दुर्गन्ध भी फैलाकर जा सकते हैं। परन्तु उन्हें हमेशा वहाँ नहीं रहना चाहिए। निर्णय इतने सूक्ष्म होते हैं कि तुम्हें उनके होने का आभास भी नहीं होता। किसी को निर्णायक ठहराना या समझना भी एक निर्णय है। जब तुम आत्मरत होते हो, प्रेम और अनुकम्पा से पूर्ण, केवल तभी तुम सभी निर्णयों से मुक्त हो सकते हो। पर यह संसार फैसलों के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता। जब तक तुम अच्छे या बुरे का निर्णय नहीं ले लेते, तुम कोई कार्य नहीं कर सकते। बाज़ार में सड़े हुई सेबों को देखकर तुम कहते हो “ये ठीक नहीं”। सिर्फ बढ़िया सेब तुम खरीदते हो। यदि कोई तुमसे दस बार झूठ कहे तो तुम सोचते हो अगली बार भी शायद वह झूठ ही कहेगा। निर्णय स्वत: ही हो जाता है। इस सम्भावना को सदा ध्यान में रखो कि व्यक्ति व वस्तु किसी भी समय बदल सकते हैं और अपने फैसलों पर अड़े मत रहो। तुम्हें अपनी संगति पर विचार करने की आवश्यकता है। तुम्हारी संगत तुम्हें ऊपर भी उठा सकती है और नीचे भी खींच सकती है। जो संगत तुम्हें संदेह, निरुत्साह, शिकायत, क्रोध, भ्रम और कामना की तरफ नीचे खींचती है, वह कुसंगत है। जो संगत तुम्हें आनन्द, उत्साह, सेवा, प्रेम, विश्वास और ज्ञान की तरफ उठती है वह सुसंगत है, उत्तम संगत। जब कोई शिकायत करता है पहले तुम सुनते हो, फिर उसकी हाँ में हाँ मिलाते हो, फिर सहानुभूति दिखाते हो
और फिर तुम खुद शिकायत करने लगते हो। तुम्हारी संगत स्वर्ग को भी नरक बना सकती है या नरक में भी स्वर्ग की सृष्टि कर सकती है। निर्णय तुम स्वयं ही ले लो….
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