गुह्यतम ज्ञान अथवा सर्वसार : दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
पहला भाग
आत्मा – यह शक्ति पुंज, इतना शक्तिशाली, इतना सक्ष्म है कि पर्वत भी हिला दे। इस शक्ति को पहचानो। यही शक्ति ही तो परमात्मा है, यही शक्ति दिव्यता है, यही शक्ति ‘तुम’ हो। यह प्रतीति हो जाने पर जीवन के विभिन्न प्रकार के कष्टों और दुःखों में भी तुम अपनी मुस्कान बनाए रख सकते हो। मुश्किलों में भी मुस्कुराना, यही तो तप है, यही तो अनुष्ठान है। अनुष्ठान से सहन शक्ति बढ़ती है; किसी कठिन वस्तु स्थिति या समस्या को झेलने की क्षमता बढ़ती है सभी धर्मों में अनुष्ठान का आयोजन है। ध्यान, उपवास, प्रार्थना सब अनुष्ठान ही तो हैं। इससे शारीरिक पुष्टि और इन्द्रियों के अनुशासन को बल मिलता है। अतः अनुष्ठान से हमें अपनी ही कई आदतों से मुक्ति मिलती है, जीवन हल्का-फुल्का सा लगने लगता है और आत्मनिर्भरता आती है।
मेरे कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं कि तुम अनुष्ठान के नाम पर सिर के बल खड़े हो जओ, कीलों पर चलो या अंगारो पर चलो। पर हां, यदि जीवन कोई ऐसी स्थिति पैदा कर दे जो अवश्यम्भावी हो – पर अनुकूल न भी हो तो भी उसे मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कर, लो झल्लाओ नहीं; तो यह निस्संदेह नींद पूरी न होने से तुम्हें थकान सी लगेगी परन्तु उनींदी रात के विचार तुम्हें और भी थका देंगे। बस इसे सहज ही स्वीकार कर लो और तुम्हारी आधी थकान तो अभी भी थका देंगे। बस इसे सहज ही स्वीकार कर लो और तुम्हारी आधी थकान तो अभी उतर जाएगी। मेरी बात समझ में आई? ध्यान से देखें तो जीवन अपने में ही एक तपस्या हैं; आग में झुलसने जैसा हैं। जिनसे हम घृणा करते हैं, उनसे तो परेशान हैं ही, वास्तव में जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनकी ओर से भी कई तरह की परेशानियां झेलने को मिलती हैं। या ऐसा कहें तो अधिक सार्थक होगा कि जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनसे परेशानियां सबसे अधिक होती हैं। जिनसे घृणा करते हो उनसे कम से कम बचने का उपाय तो है, परन्तु जिन्हें प्रेम करते हो, उनका क्या करो? उनसे बचने का उपाय तो क्या करोगो, उनसे बचने का विचार भर तुम्हें विचलित कर देगा। कैसी विडम्बना है? कोई मार्ग नहीं सूझता ना?
to be continued………..
The next part will be published tomorrow…
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