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गुरूजी, आपने प्रेम के विषय में बतलाया और वास्तव में प्रेम अद्भुत है- आपने कहा ‘ईश्वर प्रेम’ है। लेकिन एक वकील होने के नाते, मुझे एक प्रसिद्ध कहावत याद आती है कि “जब प्रेम दरवाजे से बाहर जाता है, वकील खिडकी द्वारा अंदर आता है।” यदि विवाह में प्रेम होता, किसी भी वकील की आवश्यकता नहीं होगी। क्या यह थोड़ा अस्वाभिक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति से हमेशा प्रेम करते रहने की आशा की जाती है? प्रश्न और उत्तर ।श्री श्री रविशंकर जी प्रतिभागियों के प्रश्नों के उत्तर दे रहें हैं।

Post Date: April 10, 2020

गुरूजी, आपने प्रेम के विषय में बतलाया और वास्तव में प्रेम अद्भुत है- आपने कहा ‘ईश्वर प्रेम’ है। लेकिन एक वकील होने के नाते, मुझे एक प्रसिद्ध कहावत याद आती है कि “जब प्रेम दरवाजे से बाहर जाता है, वकील खिडकी द्वारा अंदर आता है।” यदि विवाह में प्रेम होता, किसी भी वकील की आवश्यकता नहीं होगी। क्या यह थोड़ा अस्वाभिक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति से हमेशा प्रेम करते रहने की आशा की जाती है? प्रश्न और उत्तर ।श्री श्री रविशंकर जी प्रतिभागियों के प्रश्नों के उत्तर दे रहें हैं।

आपके पास प्रेम से बचने का कोई रास्ता नहीं हैं। वास्तव में जिससे आप बने हैं वह प्रेम ही है। यदि आप क्रोधित हैं, उसका कारण केवल प्रेम है। आप संपूर्णता को प्रेम करते हैं और इसलिए अपूर्ण स्थिति में आप क्रोधित होते हैं जब प्रेम विकृत हो जाता है, यह क्रोध बन जाता है। जब प्रेम उत्तेजित हो जाता है यह घृणा में बदल जाता है, वस्तुओं के प्रति आपका प्रेम लालच में बदल जाता है। आप किसी को जितना अधिक प्रेम करते हैं, वह अधिकार में बदल जाता है।

और फिर यह ईर्ष्या उत्पन्न करता है। संम्भवतः प्रेम के बगैर विश्व एक बेहतर स्थान होता जिसमें उक्त सभी प्रेम जनित नकारात्मकतायें नहीं होती। यदि प्रेम नहीं होता तब कानून एक व्यवसाय का नहीं लेता। सभी नकारात्मक संवेग कुछ नहीं अपितु प्रेम की विकृति हैं। मैं नहीं समझता कि प्रेम एक संवेग मात्र है जो आपको यह कहने के लिए बाधित करेगा “मेरे प्रिय, मैं आपके बिना जिंदा नहीं रह सकता, मैं आपको हमेशा अपने पास ही रखना चाहता हूँ।” प्रेम वास्तव में वही है जो हम हैं, प्रेम हमारा ही अस्तित्व है, हमारा संपूर्ण जीवन है।लेकिन जिस तरीके से हम इसे अभिव्यक्त करते हैं, जैसा हम प्रेमवश करते हैं, वह एक अलग बात है। उसके लिए प्रज्ञा की आवश्यकता है।

मैं आपको एक उदाहरण दूगा। हम ग्रामीण क्षेत्रों मे चलाचे है। यद्धपि बच्चों को प्रत्येक वस्तु निःशुल्क दी जाती है कभी-कभी उपस्थिति बहुत ही कम रहती है। हमारे पास एक आदिवासी गांव के एक विशिष्ट स्कूल में 100 बच्चों का नामांकन हुआ है। वहा पर उपस्थिति केवल 60 प्रतिशत ही है। हमने आआयों (सहायिकाओं) को नियुक्त किया, जो व्यक्तिगत रूप से जाकर प्रत्येक घर से बच्चों को लेकर आती हैं। क्योंकि वे बच्चे पहली पीढ़ी के पढ़ने लिखने वाले (अपने परिवारों में) बच्चे हैं, कभी-कभी यदि वे रोना-चिल्लाना शुरू करते हैं, मातायें उनको स्कूल नहीं भेजना चाहकी हैं। वे उनको कहती है, “चिंता मत करो। तुम भेड़, बकरियों और मुर्गियों की देखभाल करो, तुम्हें स्कूल जाने की आवश्यकता नहीं हैं,” इसलिए उनको समझाने के लिए हमें बहुत प्रयास करने पड़ते हैं, और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए उनको समझाना पड़ता है। हम स्कूल में लाने लिए बच्चों को अनेक प्रोत्साहन देते हैं। हम उन्हें प्रतिदिन खिलौने और मिठाईयां देते हैं। वास्तव में, जब एक बार वे इस प्रणाली का हिस्सा बन जाते हैं, वे नियमों का पालन करने लगते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ-आज्ञानी का प्रेम भी हानिकार और ज्ञानी के क्रोध में भी लाभ होता है।

 

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