सेवा ही रक्षक है:- श्री श्री रवि शंकर
व्यक्तिगत चेतना से विश्व चेतना में विकसित होने का उपाय है दूसरों के सुख-दुःख में भागी होना। जैसे-जैसे तुम्हारा विकास होता है, तुम्हारी चेतना का भी विकास होना आवश्यक है। जब समय के साथ तुम्हारे ज्ञान की वृद्धि होती है, तब उदासीनता सम्भव ही नहीं। तुम्हारा आंतरिक स्रोत ही आनंद है। अपने दुःख को दूर करने के लिए विश्व के दुःख में भागीदार बनो। और खुद के आनंद की वृद्धि के लिए विश्व के आनन्द में सहभागी हो जाओ। “मेरा क्या होगा? इस संसार से मुझको क्या मिलेगा?” ऐसा सोचने के बदले यह सोचो, “इस संसार के लिए मैं क्या कर सकता हूँ?” और जब सभी लोग इस विचार से आयेंगे कि वे समाज को अपना क्या योगदान दें, तब वह समाज दैवी समाज होगा। हम सब को अपनी व्यक्तिगत चेतना को शिक्षित और शिष्ट करना है ताकि समय के साथ हमारे ज्ञान की वृद्धि हो। “मेरा क्या होगा?” से “मैं क्या योगदान दे सकता हूँ?” यदि ध्यान में तुम्हें गहन अनुभव नहीं हो रहे, तो और अधिक सेवा करो। तुम्हें पुण्य मिलेगा और तुम्हारे ध्यान में अधिक गहराई आएगी। जब तुम सेवा द्वारा किसी को आराम पहुँचाते हो या संकट-मुक्त्त करते हो, तब तुम्हें मंगल कामनाएँ और आशीर्वाद मिलते हैं। सेवा से पुण्य मिलता है। पुण्य तुम्हारे ध्यान को और गहन करता है। ध्यान तुम्हारी मुस्कान वापस लाता है। पहेली का जवाब: तुम्हारी वह अमूल्य वस्तु है तुम्हारी मुस्कान, तुम्हारा आनन्द, जिसको तुम संसार में खो देते हो और वापस पाते हो अपने ही अंदर – आत्मा में, सत्संग में। यदि तुम्हें यह यहाँ नहीं मिलती, तो भूल जाओ, तुम इसे और कहीं नहीं पा सकते। ज्ञान – पत्रों का प्रथम वर्ष आज समाप्त होता है। इस वर्ष का शुभारंभ बिग सर में ज्ञान से हुआ और सेन्ट लुई में सेवा से समाप्त होता है।
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