*संशयवाद*:- श्री श्री रवि शंकर
संशयवादी होकर भी यह नहीं जानना कि तुम संशयवादी हो, अज्ञान है। यदि तुम सोचते हो कि तुम संशयवादी हो, तब तुम संशयवादी नहीं रह जाते क्योंकि तुम्हें कुछ आभास है कि इसके परे भी कुछ है। इसलिए तुम वास्तव में कभी भी यह नहीं जान सकते कि तुम संशयवादी हो या नहीं।
संशयवादी एक भंवर में, एक विशेष सोच में फँसा है और अन्य किसी संभावना को स्वीकार नहीं करता। लेकिन इस सृष्टि में अनन्त सम्भावनाएँ हैं। जैसे जैसे यह समझ आती है, सोचने के ढंग में परिवर्तन आ जाता है और संशय दूर होता है।
एक सच्चा वैज्ञानिक कभी संशयवादी हो ही नहीं सकता, क्योंकि संशयवाद सृष्टि के अज्ञात क्षेत्रों की खोज जारी नहीं रहने देता। संक्षेप में, संशयवादी की मन:स्थिति है, मैं सब कुछ जानता हूँ”। और यह विचार-धारा अवैज्ञानिक है। संशय ज्ञान से दूर होता है। प्रत्येक मनुष्य के अंतःकरण में प्रेम और विश्वास है।
जिसको तुम संशयवाद समझते हो, वह तो एक पतली सी परत है। यदि तुम निश्चय कर लेते हो कि कोई संशयवादी है, तुम उनके संशय को और मजबूत करते हो| किसी के संशय को मान्यता मत दो और उनसे तर्क की कोशिश भी न करो। तर्क उनके संशय को और प्रबल कर देता है। स्वाधीनता में बाधा का भय उनके प्रतिरोध को बढ़ाता है, उनके संशय को और दृढ़ करता है।
तुम्हारा मौन और तुम्हारी आंतरिक मुस्कान उनके संशय को दूर कर देगी। संशय को दूर करने के लिए मौन से बढ़कर कुछ भी नहीं। मौन का अर्थ सिर्फ होठों को बंद रखना नहीं है बल्कि यह तो चेतना का गुण है।
सीमित विचार-धारा के व्यक्तियों मे ही संशय उत्पन्न होता है। बच्चों के मन में संशय नहीं होता। बच्चे अपनी काल्पनिक दुनिया में रहते हैं, ऐसी दुनिया जिसमें अनेक सम्भावनाएँ हैं। उनका संसार सरलता, आनन्द, सौन्दर्य और प्रेम से भरा है।
जय गुरुदेव