‘भगवान’ के छ : गुण : दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
पहला भाग
तुमने जीवन में अनुभव किया है न, कि तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परन्तु मन की इच्छाएं किसी भी छोटी या सीमित वस्तु से पूरी नहीं हो सकती, इसलिए ही कहीं सन्तुष्टि नहीं मिलती, क्योंकि इन्द्रियों की भोग की क्षमता सीमित है और हमारी खुशी पाने की आकांक्षा असीम है। इसलिए कोई भी इन्द्रिय मन को पर्याप्त सन्तुष्टि नहीं दे सकती, क्योंकि तुम्हारा मन इन्द्रियों से बहुत बड़ा है और इसलिए मन की मांग भी संसार से मिलने वाले सुखह्य से बहुत बड़ी है। तुम्हारी चेतना की सन्तुष्टि की सामर्थ्य असीम है और संसार जो कुछ दे पाता है, वह बहुत सीमित और तुच्छ है।
‘भगवान’ शब्द के छः गुण कहे गए हैं। हमारी चेतना रूपी पुष्य की छः पंखुड़ियों की खिलावट इन्हीं छः गुणों से हुई है। इनमें से सर्वप्रथम है ‘उपस्थिति’। भगवत्ता की उपस्थिति की प्यास। और यही प्यास प्रार्थना बन जाती है। यह प्रार्थनामय होना ही पर्याप्त है।
पहला चरण है उसकी उपस्थिति को अनुभव करना और दूसरे चरण में तुम्हारा उस उपस्थिति के साथ एकरूप हो जाना। तुम ही वह उपस्थिति बन जाओ। उसकी उपस्थिति और तुममें कोई भेद न रह जाए। और वही ‘उपस्थिति’ ही ‘भगवान’ है। तुम भजन में गाते हो, “ओइम् भगवान’’ आदि। भगवान अर्थात एक उपस्थिति।
दूसरा गुण है सार्वभौमक कीर्ति। कीर्ति का अर्थ विभिन्न स्थानों, विभिन्न विचारों के लोगों में सर्वमान्यता। अलग-अलग देशों में भिन्न लोगों के प्रसिद्ध के मापदंड भिन्न-भिन्न होते हैं। कहीं पर किसी गायक को बहुत प्रसिद्धि मिल जाती है, जैसे कि ‘माइकिल जैकसन’ की आजकल उत्तरी अमरीका और यूरोप के कई देशों में बहुत प्रसिद्धि है – उसके पाँप संगीत की। किन्तु चीन या भारत के कुछ शहरों में उसी पाँप संगीत को लोग संगीत नहीं, बल्कि उसे ‘शोरगुल’ की संज्ञा देते हैं। परन्तु संसार के तुम किसी भी कोने में चले जाओ – चीन, भारत, जापान और कोरिया आदि – इन सब स्थानों में चर्च (ईसाईघरों) तथा जीसस क्राइस्ट के उपदेशों को मान्यता प्राप्त है। उन सब स्थानों पर जीसस की कीर्ति प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है। अतः सच्ची कीर्ति तो ‘जीजस’ की हुई, न कि ‘जैकसन’ की।
to be continued………..
The next part will be published tomorrow…