‘भगवान’ के छ : गुण : दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
सातवाँ भाग
परन्तु साधारणतया इस बात से तुम्हें ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुम जीवन पर से अपना नियंत्रण खो रहे हो। लोग डर कर कहते हैं, “अरे कहीं मैं जीवन पर नियंत्रण ही न खो दूं?” तुम्हारा जीवन पर नियंत्रण है ही कितना? यह तो एक विभ्रम है। वास्तविक तो यह है कि इस तरह तुम जीवन पर अधिक नियंत्रण पा लोगे। अस्तित्व तुम्हारे साथ होगा। तुम्हारी संकल्पशक्ति इतनी प्रबल होगी कि यदि तुमने पूर्ण संकल्प के साथ एक बार कह दिया कि ‘तूफान नहीं आना चाहिए, तो सचमुच तूफान आ ही नहीं सकता। ‘तूफान नहीं आना चाहिए, तो सचमुच तुफान आ ही नहीं सकता। इतना प्रबल संकल्प। यह कोई नियंत्रण नहीं, संकल्प है। यह तो नैसर्गिक व्यवस्था है। यही त्याग है – छोड़ने की क्षमता। तब तुम पूरी तरह कह सकते हो कि “मेरा तो कुछ भी नहीं है, यह शरीर भी नहीं, विचार भी नहीं और भाव भी नहीं। यह सब तो अपने आप कुछ समय के लिए आते हैं और चले जाते हैं।” और तो और तुम अपनी व्यथा को भी अधिक समय तक रोक नहीं पाते। क्या तुम्हारी व्यथा या दुःख अधिक समय तक वैसा का वैसा रह पाता है? एक दिन या दो दिन – बस फिर उसमें बदलाहट आने लगती है। उसकी तीव्रता उतनी नहीं रह सकती। सभी भावदशाएं आती हैं और जाती हैं। आना-जाना उनका स्वभाव है।
परन्तु तुम्हारा स्वभाव – वह तो शांति है, आनंद है, सन्तुष्टि है। वह स्वभाव तो सदा तो सदा वैसा ही रहता है। तुम तो कितनी बार विभिन्न शरीरों के माध्यम से आए और गए हो, परन्तु तुम्हार ‘होना’ – वह तो वैसा ही रहता है सदा।
to be continued………..
The next part will be published tomorrow…
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