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प्रकृति और विकृति: दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर

Post Date: May 24, 2020

प्रकृति और विकृति: दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर

नौवां भाग:

कृष्ण भी अर्जुन से यही कहते है, “अर्जुन, तुम सोचते हो, तुम वह
नही करोगे, जो तुम्हें करना चाहिए? मैं कहता हूं यद्धपि तुम न भी
चोहो तो भी तुम वही करोंगे।” कृष्णा बड़ी चतुराई से कहते हैं, “उचित
तो यही है कि तुम स्वय को मेरे प्रति समर्पण कर दो। सब कुछ
छोड़कर मुझे समर्पित हो जाओ और जैसे मैं कहता हूँ, वैसे ही करो।

फिर कहते है, “ मैंने’ जो भी तुम्हें समझाना था, कह दिया। अब तुम
स्वयं सोचो और जो भी तुम्हें ठीक लगे, वैसा ही करो।” फिर साथ ही
कृष्ण कहते हैं “परन्तु याद रखो, तुम करोगे वही, जो मैं चाहता हूं।”
कृष्ण के इन अन्तिम वाक्यों से लोग बहुत उलझन में पड़ गए और
इन शब्दों का अर्थ समझ नहीं पाए। इसका अर्थ करने के लिए सैंकड़ों
समीक्षाएं की गई हैं। इन तीन विरोधाभासी वक्त्तव्यों के लिए-एक-
“सभी कुछ समर्पण कर दो, जैसा मैं कहता हूं वैसा करो, मैं तुम्हारे
लिए सब कुछ करूंगा।” दूसरा- “सोचो और देखो। जो भी तुम्हे ठीक
लगे, वैसा ही करो।” और तीसरा- “परन्तु याद रखो, तुम करोगे वही
जैसा में चाहूंगा।”
जब हम सत्व, रजस और तमस के विषय में बात कर रहे थे तो
हमने देखा कि तुम्हारी कुछ करने की प्रबल लालसा या कर्तापन
तुममें निष्क्रियता या सुस्ती (तमस) को दूर हटा देता है। एक बार
सुस्ती दूर हुई तो तुम फिर से कार्यरत हो जाते हो। पूरी तरह कार्य में
तल्लीन होते ही तुम्हें अनुभव होता है कि तुम तो कुछ कर ही नहीं
रहे हो, यह सब कुछ तुम्हारे द्वारा हो रहा है। तुम सिर्फ दृष्टा बन
जाते हो। यह अनुभूति बहुत महत्वपूर्ण है।
तुम्हें भी अपने कुछ कार्य के बाद ऐसा प्रतीत हुआ होगा कि कार्य के
आरम्भ में तो लगा, “मैंने यह सब किया है।” परन्तु धीरे-धीरे समय
के साथ ज्यों ज्यों कार्य होता जाता है तो तुम्हें लगता है कि यह सब

कुछ तो स्वयं हो हो रहा है। तुमने तो कुछ भी नहीं किया, वह सब
जैसे अपने आप होता चला गया। ऐसा लगा है कि नहीं?

to be continued………..

The next part will be published tomorrow…

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