प्रकृति और विकृति: दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
दसवाँ भाग:
संसार में जितना भी सृजनात्मक कार्य हुआ है, चाहे वह नृत्य के क्षेत्र
में संगीत में, ड्रामा या चित्रकला के क्षेत्र में, वह सब कुछ किसी
अज्ञात शक्ति या केन्द्र से संचालित हुआ। बस सहज रूप से घट
गया। तुम उसके कर्त्ता नहीं हो। इसीलिए एक कहानीकार या कवि
कहता है। “यह सब मैंने नहीं लिखा। बस ऐसे ही यह मुझसे निकलना
शुरू हो गया।” एक मूर्तिकार भी ऐसा ही कहता है। एक अच्छे
संगीतकार का भी यही अनुभव है और मैं कहता हूँ कि यदि तुम
किसी बड़े अपराधी से पूछो तो वह भी यही कहेगा, “मैं क्या करता,
मैं रूक ही नही सका और मेरे से ऐसा हो गया।” हमने जेलों में कई
कोर्स करवाएं हैं और वहां हमने अनुभव किया कि अपराधी भी मनुष्य
ही है, कोई पशु नहीं। वे भीतर से अच्छे होते हैं। वे स्वयं
आश्चर्यचकित होते हैं कि उनसे ऐसा कैसे हो गया। उन्हें अपने किए
पर विश्वास नहीं होता। बुरे से बुरा अपराधी भी अपने कृत्यों पर
विश्वास नहीं कर पाता। क्योंकि वह भी महसूस करता है कि वह सब
उसके द्वारा हुआ, उसने किया नहीं। यह ज्ञान ही तुम्हें अपूर्णता से
पूर्णता की ओर ले जा सकता हैं। इससे तुम्हारी चेतना पर पड़ी
सलवटें और झुरियां साफ हो जाती हैं।
प्रश्न-मेरे प्रिय गुरू जी, मैं अपनी आदतों से कैसे छुटकारा पा सकता
हूँ?
उत्तर- हूं! जब तुम अपनी किसी आदत से पीड़ित होते हो तो अपनी
आदत को तर्कयुक्त या न्यायसंगत ठहराने का प्रयत्न मत करो। प्रायः
हम अपनी आदतों को ठीक और न्यायोचित ठहराते हैं। ऐसा किए
बिना यदि हम उस पीड़ा को पूरी तरह अनुभव करें- ‘ ओहो, यह मेरी
आदत तो मेरी जान ही ले रही है। मैं तो सचमुच इससे तंग आ गया
हूं। ‘जब तुम पीड़ा को इनते अधिक निकट से देख लेते हो तो वह
आदत तुमसे दूर हो जाती है। जब तक तुम पीड़ा को इस अन्तिम
सीमा तक नहीं ले जाते, तब तक वह आदत बनी रहती है। ध्यान,
सत्संग, क्रिया आदि को बार-बार करने से भी आदतें मिट जाती है।
अच्छे लोगों की संगति, नियंत्रित व्यवहार और अपने को किसी
सृजनात्म कार्य में संलग्न रखता-इनसे भी आदतों में सुधार आता है।
तुमने अधिक धूम्रपान करने वाले देखे होंगे-जब वे किसी कार्य में
अधिक व्यस्त होते हैं तो कम धूम्रपान करते हैं, खाली रहने पर
अधिक। जब तुम बहुत अधिक व्यस्त होते हो तो भी आदतें तुम्हें
छोड़ देती हैं या जब तुम अन्तरतम से किसी आदत से बहुत दुःखी
होकर छुटकारा पाना चाहते हो, तब तुम हताश होकर पुरे हृदय से प्रभु
के चरणों में समर्पण कर देते हो। उन प्रार्थना के क्षणों में तुम्हारे
भीतर सूक्ष्म स्तर पर सारे रसायन बदलने लगते हैं और तुम दिव्य
प्रेम में डूब जाते हो, आदत विसर्जित हो जाती है।