दो कदम बुद्धत्व की ओर : दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
पहला भाग:
जानते हो भाष व्याकरण में तीन पुरूष होते हैं। उत्तम पुरूष (1),
मध्यम पुरूष (you) प्रथम पुरूष (He) । सामान्यतः भगवान को ‘प्रथम
पुरूष’ (वह) की श्रेणी में रखना हमें बहुत सुविधाजनक रहता है।
भगवान को उत्तम पुरूष (मैं) की श्रेणी में रखना बड़ा कठिन लगता है।
बुद्धि से यह बात हमारी समझ में आ भी जाए फिर भी चूंकि हमारी
आदत सब तरफ दोष देखने की हो चुकी है, हमारी चेतना इसे
स्वीकार नहीं पाती कि “मैं” भगवान हूं। अतः उसे (भगवान को) ‘वह ’
से ‘मैं’ तक लाने में ‘तुम’ के रास्ते से गुजरना होगा, अर्थात संबंध,
पहले सीधा ‘मध्यम पुरूष’ वाला बनाना पड़ेगा। यह संबंध बनने से
‘मैं’ (उत्तम पुरूष) का संकुचित ज्ञात, ‘मैं’ की संकीर्णता पारदर्शक होकर
वृहत में विलीन होने लगती है।
तुम केवल शरीर और मन का पुंज नहीं हो। तुम तो आकाश सदृश्य
सर्वत्र हो-अनन्त, विस्तीर्ण। तुम से सारा संसार समाहित हैं। परन्तु
जिस ‘तुम’ से तुम्हारा अपना परिचय है अथवा जिसे तुम अपना होना
समझते हो, वह तो सिर्फ तुम्हारा सीमित मन, सीमित विचार और
सीमित धारणाएं हैं। इस सीमित को असीम से केवल प्रेम ही जोड़ता
है।
प्रेम क्या है? वह तो तुम्हीं हो। तुम्हारा अस्तित्व प्रेम ही है। इसीलिए
जब तुम प्रेममय हो जाते हो, तब ‘मैं’ का भान ही नहीं रहता। इसे
ऐसे देखो जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो उसे क्या कहते हो? ‘तुम
तो मेरा जीवन हो’ कहते हो कि नहीं? ‘तुम’ तो मुझे जान से भी प्यारे
हो, ‘तुम तो मेरा ही एक अंग हो,’ ‘तुम तो मेरे प्राण हो,’ ऐसी न और
न जाने कितनी बातें कहते हो। इस सब वक्तव्यों में ‘मैं ’ ने ‘तुम’ को
आत्मसात कर लिया। इस अवस्था में अहं वाले सीमित ‘मैं’ का
अस्तित्व तो विलीन हो गया। जब अहं विलीन होता है तो जीवन के
सब दुःख-दर्द भी उसके साथ चले जाते हैं, क्योंकि जीवन के दुःख दर्द
हैं ही अहं के कारण, जो ‘दुई’ (तू और मैं) उपजात है। अहं क्या है?
केवल पृथकताः तुम अलग मैं अलग का भाव। लेकिन कभी ऐसा
अनुभव हो कि किसी समूह में बैठे तुम अपने को समूचे समूह का
एक अंग समझो, कि मैं सर्वत्र और सब में हूं और ‘मैं’ कुछ भी नही
हूं उससे अलग इकाई नहीं। बस यही प्रतीति है प्रेम की, अहंकार रहित
‘मैं’ की यही बुद्धत्व है।
to be continued………..
The next part will be published tomorrow…