दो कदम बुद्धत्व की ओर : दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
चौथा भाग:
बातें करने में सभी को रस होता ही है। बातें क्या होती हैं? इधर-उधर
की-कपड़ों की, सिनेमा की, राजनिती या मौसम की। अपना अनमोल
समय हम तुच्छ बातों में गंवा देते हैं। इसी को ज्ञान चर्चा में लगाएं
तो कैसा रहे? जीवन में आपको क्या मिला आपने जीवन को कैसे
स्वीकार कियाः जो ज्ञान आपको मिला, उसे आपने कितना जीया या
जीवन में उतारा क्या आप वर्तमान में जीते हैं? समय का सार्थक
उपयोग यही है कि मन को क्षुद्र से हटाकर ज्ञान, विवेक और शाश्वत
के बोध से जोड़ें।
यह शरीर मरणधर्मा है; इसकी शक्ति दिन-ब-दिन घटती जा रही है।
यह नित नश्वरता की ओर जा रहा है। कुछ भी कर लो, इसे बदला
नहीं जा सकता। ओर आत्मा? आत्मा तो है अनित्य, अनश्वर, अमर।
उमर बढ़ने के साथ-साथ तुम्हारे मन में भी परिपक्कता आए और
इसकी रूचि आत्मबोध की ओर बढ़ती जाए तो बहुत शुभ। शरीर तो
दिनों दिन धरती में समा जाने का आयोजन करता है, यह प्रकृतिक
का नियम है। परन्तु हम इसी नश्वर शरीर के साथ इतना जुड़े रहते
हैं कि दिन-रात इसी की चिंता बनी रहती है, मन इसी में उलझा
रहता है। और ‘सत्य’ (आत्मबोध) के केन्द्र बिन्दु से हट जाता है।
ऐसी ही है न? नश्वरता के सान्निध्य से दुःख ही तो मिलेगा? हां, तो
संसार में इतना दुःख है। इस दुःख के निवारण हेतु हमें इक्ठ्ठे होकर
कोई ठोस कदम उठाना है। वह ठोस कदम है सेवा। सेवा तो अनिवार्य
है। यदि हम केवल अपनी ही चिंता करें, ‘मैं’ के घिरे ‘मेरा क्या होगा’
यही सोचते रहें तो समझो हमने अपने को नरक में डाल लिया।
समझो, यह एक विधि है निराशा में उतरने की। जिस दिन आप बहुत
खुश हो और साथ ही निराशा का अनुभव लेने की इच्छा हो तो ‘मेरा
क्या होगा’ सोचना शुरू कर दो। मैं आश्वासन देता हूं कि घंटे भर में
खुशी गायब और आप गहरी निराशा और चिन्ताओं की गर्त में होंगे।
to be continued………..
The next part will be published tomorrow…