*कागज़ का आवरण*:- श्री श्री रवि शंकर
इन्द्रियों से जो साँसारिक सुख हम अनुभव करते हैं वह तो उपहार के बाहरी आवरण की तरह है। सच्चा आनन्द है भीतर की उपस्थिति। दिव्य प्रेम ही हमारा उपहार है किन्तु हम कागज़ के बाहरी आवरण में फंसे रहते हैं और सोचते हैं कि हमने उपहार का आनंद ले लिया। यह उसी तरह है जैसे कोई बिना कागज़ खोले ही चॉकलेट मुँह में रख ले। इस तरह चॉकलेट का थोड़ा स्वाद भले ही मिल जाये, परन्तु कागज़ का आवरण मुँह में छाले कर देगा।
उपहार के ऊपरी आवरण को खोलो। सम्पूर्ण सृष्टि ही तुम्हारी है, उनका आनन्द लो। ज्ञानी भीतर के उपहार का आनंद लेना जानते हैं, अज्ञानी ऊपरी आवरण में उलझे रह जाते हैं।
वाली: “मेरे पास अमेरिका में कुछ ज़मीन है। कृपया आप वहाँ एक आश्रम बनाने के लिए विचार कीजिए।”
श्री श्री: “मैं चाहता हूँ कि हर एक घर एक आश्रम हो।” आप में से कितने व्यक्ति अपने घर को आश्रम समझते हैं? यदि नहीं, तो वह क्या है जो आपके घर को आश्रम होने से रोक रहा है? आप क्या सोचते हैं- एक आश्रम की क्या विशेषताएँ होती है?
जय गुरुदेव
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