आत्म-ज्ञान : दो कदम बुद्धत्व की ओर – श्री श्री रवि शंकर
चौथा भाग :
धैर्य ही बुद्धत्व का मूल मंत्र है अनन्त धैर्य और प्रतीक्षा। परन्तु प्रेम
में प्रतीक्षा है तो कठिन। अधिकांश व्यक्ति तो जीवन में प्रतीक्षा
निराश होकर ही करते हैं, प्रेम से नहीं कर पाते।
प्रतीक्षा भी दो प्रकार की होती है। एक है निराश मन से प्रतीक्षा करना
और निराश होते ही जाना। दूसरी है प्रेम में प्रतीक्षा, जिसका हर क्षण
उत्साह और निराश होते ही जाना। दूसरी है प्रेम में प्रतीक्षा, जिसका
हर क्षण उत्सहा और उल्लास से भरा रहता है। ऐसी प्रतीक्षा अपने में
ही एक उत्सव है, क्योंकि मिलन होते ही प्राप्ति का सुख समाप्त हो
जाता है। तुमने देखा, जो है उसमें हमें सुख नहीं मिलता, जो नहीं है,
उसमें हमें सुख नहीं मिलता, जो नहीं है, उसमें मन सुख ढूंढता है।
उसी दिशा में मन भागता है। हैं त प्रतीक्षा अपने में ही एक बहुत
बढ़िया साधना है हमारे विकास के लिए। प्रतीक्षा प्रेम की क्षमता और
हमारा स्वीकृति भाव बढ़ाती है। अपने भीतर की गहराई को मापने का
यह एक सुन्दर पैमाना है।
यह प्रेम-पथ अपने में पूर्ण है और जीवन से जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं
कि कुछ नित्य नियम कुछ समय के लिए करके फिर वही अपना
मशीनी जीवन जीते रहें और गिला-शिकवा करते रहें कि ‘हमे तो कोई
गहरा अनुभव होता ही नही।’ ऐसी शिकायतें मुझे कई लोगों से सुनने
को मिलती हैं कि उनकी साधना, अर्चना तो ठीक है, परन्तु वह उनके
जीवन का एक अटूट अंग नहीं बन पाई और न ही उनके जीवन में
कोई बदलाव ही आया है। बस यहीं पर आत्मज्ञान की आवश्यकता है।
अभ्यास और वैराग्य आत्म-युन्नति के दो अंग हैं। आत्मज्ञान का यह
पक्ष जीवन्त है, अतः जीवन में उठते-बैठते चलते-फिरते सोते-जागते,
यह अनश्वर सत्य कि ‘मैं आत्मा हूँ’ हमारे भीतर सुदृढ़ होता जाता है।
इस पथ ने प्रेम, ज्ञान, कर्म, सेवा सबको अपने भीतर समाहित कर
लिया है, ताकि विशुद्धा चेतना का झरना सदा बहता रहे।
बुद्धत्व, किसी भी व्याख्या से परे , शिकायत की हदों से पार की
अवस्था है-एक अनुभूति है।
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