अपने पितरों को श्रद्धा समर्पित करने का पक्ष, या स्पष्ट कहें तो अपने इतिहास से मिलने का पक्ष।
आज से पितृपक्ष प्रारम्भ हो रहा है। अपने पुरखों की पूजा का पक्ष, अपने पितरों को श्रद्धा समर्पित करने का पक्ष, या स्पष्ट कहें तो अपने इतिहास से मिलने का पक्ष। वर्तमान की हर पीड़ा की औषधि इतिहास के पास होती है। हम इतिहास को गुरु मान लें तो वर्तमान और भविष्य कभी संकट में नहीं आएंगे। समझ रहे हैं न?
पितृपक्ष में पुरखों के लिए तर्पण की परम्परा रही है। कुछ लोगों को तर्पण जैसी परम्पराओं पर आपत्ति रहती है कि यह जल पुरुखों को मिलता कैसे है। वस्तुतः महत्वपूर्ण तर्पण नहीं है, महत्वपूर्ण वह परम्परा है जिसके कारण व्यक्ति पितृपक्ष में प्रतिदिन पवित्र मन से सूर्य के समक्ष अपने पितरों को याद करता है। उन्हें जल और पुष्प के रूप में अपनी श्रद्धा भेंट करता है। यह श्रद्धा महत्वपूर्ण है। भारत यदि बारह सौ वर्षों से तलवार की धार पर चल कर भी फल फूल रहा है, तो इसी श्रद्धा के कारण…
सनातन एकमात्र ऐसी सभ्यता है जिसने अपने पितरों को भी देवता के बराबर प्रतिष्ठा दी है। प्राचीन काल में वर्ष का आधा भाग पितरों की पूजा के लिए और आधा वर्ष देव आराधना का होता था। बाद में जब मनुष्य में भौतिकता के प्रति मोह बढ़ गया तो पितृपक्ष का समय कम कर के पन्द्रह दिन कर दिया गया। यह ठीक वैसा ही है जैसे दो महीने तक चलने वाले वसंत उत्सव को आठवीं-नौंवी शताब्दी में एक दिन की सरस्वती पूजा में सिमटा दिया गया। अपनी परम्पराओं को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लेना भी हमारी शक्ति है। सनातन किसी तालाब में ठहरा जल नहीं, एक बहती हुई धारा है जो मार्ग की बाधाओं से टकरा कर भी रुकती नहीं, बल्कि नए मार्ग का सृजन कर लेती है।
पितृपक्ष में हमारा कर्तव्य केवल पितरों के लिए तर्पण ही नहीं है। अच्छा होगा कि इन पन्द्रह दिनों में समय निकाल कर हम अपना इतिहास पढ़ें, अपने पुरुखों की गाथा पढ़ें…
अपने धर्मशास्त्र पढ़ें, अपनी प्राचीन मान्यताओं, परम्पराओं को समझें और उनसे जुड़ें। हजारों हजार वर्ष पूर्व जिन पुरुखों ने केवल सीधी आँखों से आकाश निहार कर ग्रहों, नक्षत्रों की समय-दशा का सटीक ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उनसे लेकर अपने सबसे निकट के पितरों तक की कथाएँ हमको कुछ न कुछ अवश्य ही सिखाती हैं। हमें अपने पूर्वज ऋषियों से सीखना होगा, राम-कृष्ण से सीखना होगा, चंद्रगुप्त से सीखना होगा, महारानी पद्मिनी से सीखना होगा, त्रैलोच्यवर्मन से सीखना होगा, शिवाजी से सीखना होगा…. यह सीख लेना ही पितृपक्ष को सार्थक करना है…
आजकल परिवार में बुजुर्गों की दशा बिगड़ती जा रही है। बूढ़े लोग वृद्धाश्रम में जीने को मजबूर हो रहे हैं। हम अपने इक्कीस पुश्त पूर्व तक के पितरों को अर्घ देनेवाले लोग हैं, हमें अपनी परम्पराओं से ही सीखना होगा कि अपने बुजुर्गों का सम्मान कैसे करते हैं। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या हमारी सभ्यता के माथे पर लगा कलंक है, हमें इसे धोना ही होगा। हम अपनी जड़ों से जुड़ कर ही पूर्ण हो सकते हैं, नहीं तो हर उड़ान अधूरी रहेगी।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।